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23 मार्च की शहीदी, शौर्य की प्रतीति

23 मार्च की शहीदी

23 मार्च – जहाँ इटली में इस तारीख़ को वर्ष 1919 में बेनितो मुसोलिनी नामक राजनेता द्वारा चलाए गए ‘फासिस्ट राजनितिक आन्दोलन’ के रूप में याद किया जाता है, सम्पूर्ण विश्व इस तारीख़ को ‘विश्व मौसम विज्ञान दिवस’ के रूप में मनाता है। वहीं भारत में इस तारीख़ को एक दुखद घटना के रूप में याद किया जाता है और वह दुखद घटना है – भगत सिंह, राजगुरु तथा सुखदेव की शहादत की घटना।

आज ही के दिन, वर्ष 1931 में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को धोखे से अर्थात अनुचित तरीके से फाँसी दी गई थी।

फाँसी का कारण

फाँसी का मुख्य कारण था – अंग्रेज़ अधिकारी जॉन सांडर्स की हत्या।

वैसे तो ऐसे अनेक कारण थे जिनके कारण भगत सिंह जैसे बहुत से देशप्रेमियों के मन में अंग्रेज़ों के प्रति रोष भरा हुआ था। जैसे –

– रोलेट एक्ट’ के विरोध में जलियाँवाला बाग में शांतिपूर्वक चल रही विरोध सभा में अंग्रेज़ी ऑफ़िसर जनरल डायर द्वारा गोलियाँ चलवा कर लगभग 400 मासूम लोगों को मारा जाना और 2000 से अधिक लोगों को घायल करना।

-इसके बाद ‘काकोरी काण्ड’ में ब्रिटिश राज के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह करने की योजना बनाई गई। जिसमें हथियार खरीदने हेतु ढ़ेर सारा पैसा चाहिए था। अब इन पैसों की व्यवस्था के लिए ब्रिटिश सरकार का खज़ाना लूटने का विचार बनाया गया। इस योजना को अंजाम देने के लिए काकोरी रेलवे स्टेशन से चली एक पैसेंजर ट्रैन की चेन खींचकर क्रांतिकारियों द्वारा उसे लूट लिया गया

– फिर जब 1928 में आए ‘साइमन कमीशन’ का भारत के भिन्न – भिन्न स्थानों पर विरोध किया जा रहा था, ‘साइमन वापस जाओ’ के नारे लग रहे थे। तो लाहौर में चल रहे एक प्रदर्शन में लोगों पर लाठीचार्ज किया गया। जिसमें लाला लाजपत राय घायल हो गए और कुछ समय पश्चात् उनकी मृत्यु हो गई। विशेषकर इस घटना के बाद क्रांतिकारियों के सब्र का बाँध टूट गया और बदले की आग उनके भीतर प्रज्वलित हो उठी।

लाला लाजपत राय जी की मृत्यु का बदला लेने के उद्देश्य से 17 दिसंबर 1928 को जॉन सांडर्स की हत्या की गई, राजगुरु शिवा जी की छापामार शैली से अत्यंत प्रभावित थे और उन्होंने ही सांडर्स की हत्या की योजना बनाई थी, जिसे भगत सिंह के साथ मिलकर उन्होंने अंजाम दिया और सफलतापूर्वक बचकर भाग निकले। इस घटना के पश्चात् यह भावना फैलने लगी कि क्रांतिकारी तो जैसे – तैसे भाग जाते हैं लेकिन उनका खमियाज़ा आम जनता को भुगतना पड़ता है। निर्दोष जनता को इससे बचाने और स्वयं को गिरफ्तार करवाने के लिए ‘असेंबली बम कांड’ की योजना बनाई गई क्योंकि इस अपराध के लिए फाँसी की सज़ा नहीं हो सकती थी। इसके लिए भगत सिंह और बुटकेश्वर दत्त को चुना गया।

8 अप्रैल 1929 को जब गवर्नर जनरल द्वारा ‘लोक सुरक्षा विधेयक तथा व्यापारी विवाद अधिनियम’ विरोध के बावजूद पास किया गया तो उसी का सहारा लेकर अपना रोष प्रकट करते हुए केंद्रीय विधानसभा में बम के साथ कुछ पर्चे फेंके गए। 

उन पर्चों में लिखा था -

“आदमी को मारा जा सकता है, उसके विचार को नहीं। बड़े साम्राज्यों का पतन हो जाता है लेकिन विचार हमेशा जीवित रहते हैं और बहरे हो चुके लोगों को सुनाने के लिए ऊँची आवाज़ जरूरी है।”

बम को फेंकते समय विशेष रूप से इस बात का ध्यान रखा गया था कि जिस जगह बम फेंका जाए वह जगह खाली हो क्योंकि वह किसी की हत्या किए बगैर अंग्रेज़ों तक अपनी बात पहुँचाना चाहते थे और उन्होंने ठीक ऐसा ही किया। बम फेंकने के बाद उन्होंने वहाँ से भागने के स्थान पर अपने आप को गिरफ़्तार करवाया। किन्तु किसी ख़बरी के माध्यम से अंग्रेज़ी सरकार को यह ख़बर मिल गई कि लाहौर में बम बनाने वाले कारखाने और सांडर्स की हत्या में भगत सिंह का भी हाथ था। बस इस बात को ब्रिटिश सरकार ने पुख़्ता सबूत के रूप में पेश करके ‘लाहौर षड्यंत्र केस 1929’ के अंतर्गत इनपर मुकदमा चलाया और इन्हें फाँसी की सज़ा सुनाई गई।

भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी की सज़ा देने के लिए अदालत द्वारा 24 मार्च 1931 की तारीख़ तय की गई थी लेकिन बाद में उन्हें इस बात का डर सताने लगा कि कहीं ऐसा न हो कि उस दिन क्रांतिकारी उस स्थल पर धावा बोलकर इन लोगों को छुड़ा न ले जाएँ। बस इसी भय से नियमों को ताक पर रखकर एक रात पहले ही भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को चुपचाप लाहौर सेन्ट्रल जेल में फाँसी पर चढ़ा दिया गया।

भगत सिंह का देश के प्रति प्रेम और बहादुरी इस बात से आंकी जा सकती है, जब फाँसी से कुछ समय पहले उनसे उनकी आखिरी इच्छा पूछी गई तो वह उस समय रूसी क्रांतिकारी व्लादिमीर लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे। उन्होंने कहा कि, “उन्हें सिर्फ़ इतना समय दिया जाए ताकि वह यह जीवनी पूरी पढ़ सकें।” वर्तमान समय का युवा जहाँ 22 – 23 वर्ष की उम्र में अपना करियर नहीं चुन पाता वहीं इतनी छोटी उम्र में ही देश के इन वीर जवानों ने फाँसी को चुन लिया था। हालाँकि वह मौत की सज़ा पाने के बाद माफ़ीनामा लिख सकते थे परन्तु इन ढृढ़निश्चयी स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेज़ी सरकार के सामने घुटने न टेककर अपने स्वाभिमानी होने का परिचय दिया। इस कदम को उठाने के पीछे एक और वजह थी और वह यह थी कि – उनका मानना था कि उनके शहीद होने से भारत की जनता आज़ादी प्राप्ति की और उग्रता से बढ़ेगी, जब उनके जीवित रहते ऐसा न हो पाएगा।

इतने उच्च विचारों वाले भारत माता के इन सपूतों के बलिदान को देखकर भगत सिंह जी की दादी जी का एक कथन याद आता है। जब भगत सिंह पैदा हुए तो उनकी दादी जी ने उनका नाम ‘भागों वाला’ रखा था। आज आज़ादी के लिए उनके द्वारा दिए गए योगदान को देखकर ऐसा लगता है कि वह ‘भागों वाला’ उपाधि हम भारतियों के लिए अधिक उपयुक्त सिद्ध होती है।

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